नदि बहती है चट्टानों को धकेलकर,
सूरज आता है अंधियारे को चीड़कर,
वैसे हीं जब मानवता होती है संकट में,
तब-तब आता है साईं ज़रूर धरती पर
कवि मनीष
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प्रेम जब पहुँचे हिर्दय की गहराई तक, पराकाष्ठा पहुँचे उसकी नभ की ऊँचाई तक, प्रेम अगर रहे निर्मल गंगा माई के जैसे, वो प्रेम पहुँचे जटाधारी के ...
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