सवेरे की लाली से खिल उठती है प्रकृति,
जैसे प्रकृति में नई जान है भर जाती,
सृष्टि के रचयिता की निराली है हर बात,
क्या अनोखी कारीगरी है परमपिता ब्रह्मा की
कवि मनीष
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प्रेम जब पहुँचे हिर्दय की गहराई तक, पराकाष्ठा पहुँचे उसकी नभ की ऊँचाई तक, प्रेम अगर रहे निर्मल गंगा माई के जैसे, वो प्रेम पहुँचे जटाधारी के ...
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