हम हैं तो है धरती हँसती,
हम नहीं तो है धरती रोती,
हम हैं कृषक,
जहाँ रख दें कदम,
धरती वहाँ सोना देती,
पर कैसी अजीब है बात,
जो है देता जीवन का सवेरा,
उसे हीं है मिलती काली रात,
सबके तक़दीर को जगाकर,
हमारी तक़दीर हीं सोती,
है हिम्मत हमारे भी भीतर,
पर ज़िन्दगी की रीढ़,
मृत्यु के वारों को कब तक सहेगी,
हमारी तो बस है मांग यही,
आवश्यक मांगों को ठुकराओ न हमारी,
क्योंकि हमारी छाती पर हीं,
धरती माँ है विराजती,
हम हैं तो है धरती हँसती,
हम नहीं तो है धरती रोती,
हम हैं कृषक,
जहाँ रख दें कदम,
धरती वहाँ सोना देती
कवि मनीष
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