है वो धूप जिसमें गर्मीं नहीं,
है सिर्फ़ उजाला अन्धियारा नहीं,
कैसे न कहा जाए,
माँ-बाप हीं है परमेश्वर और कोई नहीं
कवि मनीष
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प्रेम जब पहुँचे हिर्दय की गहराई तक, पराकाष्ठा पहुँचे उसकी नभ की ऊँचाई तक, प्रेम अगर रहे निर्मल गंगा माई के जैसे, वो प्रेम पहुँचे जटाधारी के ...
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