जय,जय शंकर कैलाशी,
जय,जय शंभु अविनाशी,
भस्म मल शरीर में,
पर्वत पर विराजे,
देव,प्रेत सब उसके दास,दासी,
जय,जय शंकर कैलाशी,
जय,जय शंभु अविनाशी,
कल-कल बहती उसके जटा से गंगा,
जो है इक जीवन स्रोत इस धरती का,
बड़ा हीं निराला रूप है उसका,
वो है हर मन का वासी,
जय,जय शंकर कैलाशी,
जय,जय शंभु अविनाशी
कवि मनीष
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