Wednesday, 6 May 2020

मच्छर



गुनगुनाते,भनभनाते ये मच्छर,
पंखों को हिला हिलाकर,
कोई धुन सुनाते ये मच्छर,

काटते इधर-उधर,
मंडरा-मंडारकर सताते दिन भर,
ख़ून पी पीकर बीमारियाँ फैलातें,
बग़ैर उपाय के नहीं भागतें,

ये कैसा कीड़ा बनाया ऊपरवाले नें,
हिर्दय में तनिक भी दया न जिसके,
कह रहा हर जीव ये
चीख़,चीख़कर,

गुनगुनाते,भनभनाते ये मच्छर,
पंखों को हिला हिलाकर,
कोई धुन सुनाते ये मच्छर

कवि मनीष 
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