गुनगुनाते,भनभनाते ये मच्छर,
पंखों को हिला हिलाकर,
कोई धुन सुनाते ये मच्छर,
काटते इधर-उधर,
मंडरा-मंडारकर सताते दिन भर,
ख़ून पी पीकर बीमारियाँ फैलातें,
बग़ैर उपाय के नहीं भागतें,
ये कैसा कीड़ा बनाया ऊपरवाले नें,
हिर्दय में तनिक भी दया न जिसके,
गुनगुनाते,भनभनाते ये मच्छर,
पंखों को हिला हिलाकर,
कोई धुन सुनाते ये मच्छर
कवि मनीष
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