कई रात जाग कर हैं काट रहे,
फिर भी हम हीं पे पत्थर हैं बरस रहे,
जिनको हम हैं आए बचानें के ख़ातिर,
वही हम पर हैं थूक रहे,
हर क्षण हैं कर रहें क़ुर्बान,
वतन के ख़ातिर,
दे रहें हैं जान,
वतन के ख़ातिर,
अपनें प्राण देकर,
न जानें कितनों के हैं प्राण बचा रहे,
कुछ हैं बरसा रहे फूल,
तो कुछ पत्थर हैं बरसा रहे,
अपनों से दूर रहकर,
हिर्दय पर पत्थर रखकर,
गैरों को अपना हैं बना रहे,
कई रात जाग कर हैं काट रहे,
हम तो हैं निभा रहें अपना फ़र्ज़,
पर आप अपना फ़र्ज़,
कहाँ हैं निभा रहे,
जो कर रहें आपकी रक्षा,
उसी से आप हैं भाग रहे,
है जो ये आपदा आन पड़ी,
बस उसी से तो बचनें को हम हैं कह रहे,
अगर फिर भी आ जाए जो आप पे ये मुसीबत,
तो हम तो हैं हीं खड़े हुए,
हमसे आप न भागें दूर,
बस हम तो यहीं हैं कह रहे,
कई रात जाग कर हैं काट रहे,
फिर भी हम हीं पे पत्थर हैं बरस रहे,
कई रात जाग कर हैं काट रहे,
फिर भी हम हीं पे पत्थर हैं बरस रहे,
जिनको हम हैं आए बचानें के ख़ातिर
वही हमपर हैं थूक रहे
कवि मनीष
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