Tuesday, 19 May 2020

है कहीं रात,
तो कहीं दिन,
है उगता सूरज,
और ढ़लता भी,

और पहिया जीवन का,
है चलता हीं,
है कठिनाईयों का दौर आता,
तो जाता भी,

जो हैं करते शूलों को भी
सहर्ष स्वीकार,
बहार उनको मिलता हीं,

है जीवन एक विशाल पर्वत,
हर किसी को है,
इसपे चढ़ना हीं,
जो हैं डरतें इससे,
मौत को निगलता हीं,

है कहीं रात,
तो कहीं दिन,
है उगता सूरज,
और ढ़लता भी

कवि मनीष 
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