कहीं शाम आँखों में,
कहीं सवेरा है,
बस वहीं तो,
ज़िन्दगी का बसेरा है,
माना हम तो जीवन भर,
दुःख उठाते हैं,
पर वसंत के बाद तो,
पतझड़ हीं आते हैं,
बस चलना है,
और क्या करना है,
मंज़िल तो सबकी एकदिन,
मिट्टी में हीं मिलना है,
कहीं शाम आँखों में,
कहीं सवेरा है,
बस यहीं तो,
ज़िन्दगी का बसेरा है
कवि मनीष
No comments:
Post a Comment