जिस इन्सान के भीतर इन्सानियत मर जाती है,
उस इन्सान के भीतर रिश्तों की भी एहमियत मर जाती है,
उस इन्सान को जीनें का रह नहीं जाता कोई हक़,
क्योंकि सड़ें अंग को काटकर फेंकनें से हीं जीनें की ताक़त बच पाती है
कवि मनीष
प्रेम जब पहुँचे हिर्दय की गहराई तक, पराकाष्ठा पहुँचे उसकी नभ की ऊँचाई तक, प्रेम अगर रहे निर्मल गंगा माई के जैसे, वो प्रेम पहुँचे जटाधारी के ...
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