पेड़ों से भरा वो गाँव था मेरा,
जीवन से भरा वो गाँव था मेरा,
शीतल पूर्वा बहती थी जहाँ,
गर्मियों में भी ठंड रहती थी वहाँ,
जहाँ होता था महकता हर सवेरा,
रात के चादर पे रहता था चाँदनीं का बसेरा,
पेड़ों की छाँव से था भरा गाँव मेरा,
पेड़ों से भरा वो गाँव था मेरा,
पर अब वहाँ वो बात न रही,
वो मटके की सौंद्धि सुगंध न रही,
शहरों नें कर लिया है उसपे भी क़ब्ज़ा,
वो महकती सुबह,दिन,शाम व रात न रही,
बाज़ारीकरण की इस दुनिया में,
प्रेम में निश्छलता न रही,
कहना मेरा तो है बस इतना हीं,
गाँव को गाँव हीं रहनें दो,
आधुनिकरण करना कोई ग़लत बात नहीं,
पर उससे किसी की निश्छलता मत छीनों,
क्योंकि मासूमियत तो है इक सौगात बड़ी,
बस इतना हीं कथन था मेरा,
पेड़ों से भरा वो गाँव था मेरा,
जीवन से भरा वो गाँव था मेरा,
शीतल पूर्वा बहती थी जहाँ,
गर्मियों में भी ठंड रहती थी वहाँ
कवि मनीष
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