बरखा बरसती है झमा, झम,झम,
धरती गुनगुनाती है गुन,गुन,गुन,
हर मंज़र है हो जाता सुहाना,
जब हरियाली लहलहाती है, खुश है हो जाता तन,मन धन
कवि मनीष
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प्रेम जब पहुँचे हिर्दय की गहराई तक, पराकाष्ठा पहुँचे उसकी नभ की ऊँचाई तक, प्रेम अगर रहे निर्मल गंगा माई के जैसे, वो प्रेम पहुँचे जटाधारी के ...
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