सुबह और शाम एक कर देता है,
ख़ून पसीनें की तरह बहा देता है,
तब एक वक्त की रोटी,
ग़रीब खा पाता है,
है कुदरत का ये इन्साफ गजब,
है निर्धन की झोलीं में दिन कम और रात बहोत,
सारी उम्र निकल जाती है, पता नहीं कैसे,
फटे बनियान और फटे धोती में है, बात बहोत,
हर निर्धन की एक कहानी होती है,
बगैर कुछ पाई हुई जवानी होती है,
गुजर जाती है सदियाँ बस यूँहीं,
उनके अश्कों में जागी हुई रात होती है,
पर केवल बातों से पेट कहाँ भरता है,
सुबह और शाम एक कर देता है,
ख़ून पसीनें की तरह बहा देता है,
तब एक वक्त की रोटी,
ग़रीब खा पाता है
कवि मनीष
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