आकाश
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खुला है आकाश,
सर पर हमारे,
जैसे सर पे हो,
छत हमारे,
जो शरीर में सबके,
भरता है प्राण,
वो प्राण वायु भी है,
इसके नीचे बहती,
तो प्रदूषण बढ़ाके,
न करो बर्बाद इसे,
अगर रखोगे तुम,
आबाद इसे,
तो यह भी रखेगा,
आबाद तुम्हे,
सर से छत जानें पर,
जीवन का है क्या
हाल होता,
ये भलीभांति है ज्ञात तुम्हे,
तो व्यर्थ न करो अपनें,
जीवन को बर्बाद,
खुला है आकाश,
सर पर हमारे,
जैसे सर पर हो,
छत हमारे
कवि मनीष
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