हो तुम वो चाँद जिसमें कोई दाग नहीं,
हो तुम वो बाग़ जिसमें कोई ख़ार नहीं,
तुम हो लाली सहर की,
तुम हो वो आफ़ताब जिसमें कोई आग नहीं
कवि मनीष
प्रेम जब पहुँचे हिर्दय की गहराई तक, पराकाष्ठा पहुँचे उसकी नभ की ऊँचाई तक, प्रेम अगर रहे निर्मल गंगा माई के जैसे, वो प्रेम पहुँचे जटाधारी के ...
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