वो बनकर चाँद एकटक हमें देखतें हैं,
हम शायद उनकी निगाहों में रहतें हैं,
बनके बादल वो तो हैं ऊपर हमारे मंडराते रहते,
हम शायद उनके ख़्वाबों-ख़्यालों में रहतें हैं
कवि मनीष
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प्रेम जब पहुँचे हिर्दय की गहराई तक, पराकाष्ठा पहुँचे उसकी नभ की ऊँचाई तक, प्रेम अगर रहे निर्मल गंगा माई के जैसे, वो प्रेम पहुँचे जटाधारी के ...
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