घृणित है ये कार्य बहोत इसका न कोई प्रायश्चित,
पैर तोड़कर मासूमों का वो छीन लेते हैं मंज़िल,
मानवता है दम तोड़ देती उस घड़ी,
जब मजबूरी है भारी पड़ जाती बचपन पर
कवि मनीष
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प्रेम जब पहुँचे हिर्दय की गहराई तक, पराकाष्ठा पहुँचे उसकी नभ की ऊँचाई तक, प्रेम अगर रहे निर्मल गंगा माई के जैसे, वो प्रेम पहुँचे जटाधारी के ...
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