सुकून कहाँ रहा बचा इस संसार में,
चैन ओ सुकूँ भी बिक रहा इस संसार में,
भला मन को सुकून कैसे देंगे सिर्फ साधन मनोरंजन के,
सुकून तो ख़त्म हो रहा इस संसार में
कवि मनीष
प्रेम जब पहुँचे हिर्दय की गहराई तक, पराकाष्ठा पहुँचे उसकी नभ की ऊँचाई तक, प्रेम अगर रहे निर्मल गंगा माई के जैसे, वो प्रेम पहुँचे जटाधारी के ...
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